Monday 23 March 2015

abijyanshakuntalm natak of kalidash


महाकवि-कालिदास-
कालिदास संस्कृत साहित्य के सबसे बड़े कवि हैं। उन्होंने तीन काव्य और तीन नाटक लिखे हैं। उनके ये काव्य रघुवंश, कुमारसम्भव और मेघदूत हैं और नाटक अभिज्ञान शाकुन्तल, मालविकाग्निमित्र और विक्रमोर्वशीय हैं। इनके अतिरिक्त ऋतुसंहार भी कालिदास का ही लिखा हुआ कहा जाता है। इतना ही नहीं, लगभग पैंतीस अन्य पुस्तकें भी कालिदास-रचित कही जाती हैं। ये सब रचनाएँ कालिदास के काव्य-सौन्दर्य पर एक दृष्टिपात भर करने लगे हैं। इन तीन नाटकों और तीन काव्यों को तो असंदिग्ध रूप से कालिदास-रचित ही माना जाता है।
कालिदास का स्थान और काल-
परन्तु विद्वानों में इस बात पर ही गहरा मतभेद है कि यह कालिदास कौन थे ? कहां के रहने वाले थे ? और कालिदास नाम का एक ही कवि था, अथवा इस नाम के कई कवि हो चुके हैं ? कुछ विद्वानों ने कालिदास को उज्जयिनी-निवाली माना है, क्योंकि उनकी रचनाओं में उज्जयिनी, महाकाल, मालवदेश तथा क्षिप्रा आदि के वर्णन अनेक स्थानों पर और विस्तार-पूर्वक हुए हैं। परन्तु दूसरी ओर हिमालय, गंगा और हिमालय की उपत्यकाओं का वर्णन भी कालिदास ने विस्तार से और रसमग्न होकर किया है। इससे कुछ विद्वानों का विचार है कि ये महाकवि हिमालय के आसपास के रहने वाले थे। बंगाली विद्वानों ने कालिदास को बंगाली सिद्ध करने का प्रयत्न किया है और कुछ लोगों ने उन्हें कश्मीरी बतलाया है। इस विषय में निश्चय के साथ कुछ भी कह पाना कठिन है कि कालिदास कहां के निवासी थे। भारतीय कवियों की परम्परा के अनुसार उन्होंने अपने परिचय के लिए अपने इतने बड़े साहित्य में कहीं एक पंक्ति भी नहीं लिखी। कालिदास ने जिन-जिन स्थानों का विशेष रूप से वर्णन किया है, उनके आधार पर केवल इतना अनुमान लगाया जा सकता है कि कालिदास ने उन स्थानों को भली-भांति देखा था। इस प्रकार के स्थान एक नहीं, अनेक हैं; और वे एक-दूसरे से काफी दूर-दूर हैं। फिर भी कालिदास का अनुराग दो स्थानों की ओर विशेष रूप से लक्षित होता है-एक उज्जयिनी और दूसरे हिमालय की उपत्यका। इससे मोटे तौर पर इतना अनुमान किया जा सकता है कि कालिदास के जीवन का पर्याप्त समय इन दोनों स्थानों में व्यतीत हुआ होगा। और यदि हम इस जनश्रुति में सत्य का कुछ भी अंश मानें कि कालिदास विक्रमादित्य की राजसभा के नवरत्नों में से एक थे, तो हमारे लिए यह अनुमान करना और सुगम हो जाएगा कि उनका यौवनकाल उज्जयिनी के महाराज विक्रमादित्य की राजसभा में व्यतीत हुआ। विक्रमादित्य उज्जयिनी के नरेश कहे जाते हैं। यद्यपि कालिदास की ही भांति विद्वानों में महाराज विक्रमादित्य के विषय में भी उतना ही गहरा मतभेद है; किन्तु इस सम्बन्ध में अविच्छिन्न रूप से चली रही विक्रम संवत् की अखिल भारतीय परम्परा हमारा कुछ मार्ग-दर्शन कर सकती है। पक्के ऐतिहासिक विवादग्रस्त प्रमाणों की ओर जाकर इन जनश्रुस्तियों के आधार पर यह माना जाता है कि कालिदास अब से लगभग 2,000 वर्ष पूर्व उज्जयिनी के महाराज विक्रमादित्य की राजसभा के नवरत्नों में से एक थे।

परन्तु विक्रमादित्य की राज्यसभा में कालिदास का होना इस बात का प्रमाण नहीं है कि उनका जन्म भी उज्जयिनी में ही हुआ था। उच्चकोटि के कलाकारों को गुणग्राहक राजाओं का आश्रय प्राप्त करने के लिए अपनी जन्मभूमि को त्याग दूर-दूर जाना पड़ता है। कुछ विद्वानों का अनुमान है कि मेघदूत के यक्ष कालिदास स्वयं है और उन्होंने जो संदेश मेघ को दूत बनाकर भेजा है, वह उनके अपने घर की ओर ही भेजा गया है। मेघ-दूत का यह मेघ विन्ध्याचल से चलकर आम्रकूट पर्वत पर होता हुआ रेवा नदी पर पहुँचा है। वहां से दशार्ण देश, जहां की राजधानी विदिशा थी। और वहाँ से उज्जयिनी। कवि ने लिखा है कि उज्जयिनी यद्यपि मेघ के मार्ग में पड़ेगी, फिर भी उज्जयिनी के प्रति कवि का इतना आग्रह है कि उसके लिए मेघ को थोड़ा सा मार्ग लम्बा करके भी जाना ही चाहिए। उज्जयिनी का वर्णन मेघदूत में विस्तार से है। उज्जयिनी से चलकर मेघ का मार्ग गम्भीरा नदी, देवगिरि पर्वत,, चर्मण्वती नदी, दशपुर, कुरुक्षेत्र और कनखल तक पहुंचा है, और वहाँ से आगे अलकापुरी चला गया है। यह कनखल इसलिए भी विशेष रूप से ध्यान देने योग्य हैं, क्योंकि अभिज्ञान शाकुन्तल की सारी कथा इस कनखल से लगभग पन्द्रह-बीस मील दूर मालिनी नदी के तीर पर कण्वाश्रम में घटित होती है।


हस्तिनापुर के महाराज दुष्यन्त मृगया के लिए हिमालय की तराई में पहुंचते हैं। कालिदास ने अपने सभी काव्यों में गंगा और हिमालय का एक साथ वर्णन किया है। इससे प्रतीत होता है कि कालिदास का हिमालय के उन स्थानों के प्रति विशेष मोह था, जहां हिमालय और गंगा साथ-साथ, इस दृष्टि से यह कनखल का प्रदेश ही एकमात्र ऐसा प्रदेश है, जहां गंगा, हिमालय, मालिनी नदी के पास ही पास जाती है। यह ठीक निश्चय कर पाना कि कालिदास किस विशिष्ट नगर या गांव के निवासी थे, शायद बहुत कठिन हो। किन्तु इस कनखल के आसपास के प्रदेश के प्रति कालिदास का वैसा ही प्रेम दिखाई पड़ता है, जैसा कि व्यक्ति को उन प्रदेशों के प्रति होता है, जहां उसने अपना बाल्यकाल बिताया होता है। वहां की प्रत्येक वस्तु रमणीय और सुन्दर प्रतीत होती है। कालिदास को केवल यहां के वन-पर्वत ही रुचे, बल्कि यहां के सिंह, व्याघ्र, शार्दूल, कराह, हरिण आदि भी उनके काव्यों में अपना उचित स्थान बनाए हुए हैं। यहाँ तक कि वहां की ओर से गीली झरबेरियों के बेर भी उनकी अमर रचना में स्थान पा गए हैं।

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