मुद्राराक्षस-
मुद्राराक्षस’
विशाखदत्त का सुप्रसिद्ध
संस्कृत नाटक है
जिसमें चाणक्य और चन्द्रगुप्त
संबंधी ख्यात वृत्त के
आधार पर चाणक्य
की राजनीतिक सफलताओं
का अपूर्व विश्लेषण
मिलता है। इस
कृति की रचना
पूर्ववर्ती संस्कृत-नाट्य परंपरा
से सर्वथा भिन्न
रूप में हुई
है-लेखक ने
भावुकता, कल्पना आदि के
स्थान पर जीवन-संघर्ष के यथार्थ
अंकन पर बल
दिया है। इस
महत्वपूर्ण नाटक को
हिंदी में सर्वप्रथम
अनूदित करने का
श्रेय भारतेंदु हरिश्चंद्र
को है। यों
उनके बाद कुछ
अन्य लेखकों ने
भी इस कृति
का अनुवाद किया,
किंतु जो ख्याति
भारतेंदु हरिश्चंद्र के अनुवाद
को प्राप्त हुई,
वह किसी अन्य
को नहीं मिल
सकी। इतना होने
पर भी भारतेंदु
द्वारा अनूदित इस कृति
के प्रामाणिक संस्करण
का अभाव खटकता
रहा है। प्रस्तुत
संस्करण में विद्वान
संपादक ने इस
अभाव की पूर्ति
के साथ ही
एक तो भूमिका
में ‘मुद्राराक्षस’ की
सर्वागीण आलोचना की है
और दूसरे, परिशिष्ट
भाग में कृतिगत
काव्यांशों की समीक्षात्मक
व्याख्या देते हुए
कुछ अन्य उपयोगी
तथ्यों का संयोजन
किया है। हिन्दी
में प्राचीन काव्य-ग्रंथों के अनेक
प्रामाणिक संस्करण उपलब्ध हैं,
किंतु गद्य-ग्रंथ
के पाठ-संपादन
की दिशा में
यह पहला निष्ठापूर्ण
प्रयत्न है जो
हिंदी-विद्वानों द्वारा
संपादित नाटकों की बँधी-बँधाई परिपाटी से
सर्वथा भिन्न है।
आमुख-
‘मुद्राराक्षस’
विशाखदत्त का सुप्रसिद्ध
संस्कृत-नाटक है,
जिसमें चाणक्य और चन्द्रगुप्त
सम्बन्धी ख्यात वृत्त के
आधार पर चाणक्य
की राजनीतिक सफलताओं
का अपूर्व विश्लेषण
मिलता है। विशाखदत्त
अथवा विशाखदेव का
काल-निर्णय अभी
नहीं हो पाया
है। वैसे, वे
भास, कालिदास, हर्ष
और भवभूति के
परवर्ती नाटककार थे और
प्रस्तुत नाटक की
रचना अनुमानतः छठी
से नवीं शताब्दी
के मध्य हुई
थी। सामन्त वटेश्वरदत्त
के पौत्र और
महाराज पृथु अथवा
भास्करदत्त के पुत्र
होने के नाते
उनका राजनीति से
प्रत्यक्ष सम्बन्ध था, फलतः
‘मुद्राराक्षस’ का राजनीतिप्रधान
नाटक होना आकस्मिक
संयोग नहीं है,
वरन् इसमें लेखक
की रूचि भी
प्रतिफलित है। विशाखदत्त
की दो अन्य
रचनाओं-देवी चन्द्रगुप्तम्,
राघवानन्द नाटकम्-का भी
उल्लेख मिलता है, किन्तु
उनकी प्रसिद्धि का
मूलाधार ‘मुद्राराक्षस’ ही है।
‘देवी चन्द्रगुप्तम्’ का उल्लेख
रामचन्द्र-गुणचन्द्र ने ‘नाट्यदर्पण’
में, भोज ने
‘श्रृंगारप्रकाश’ में और
अभिनवगुप्त ने ‘नाटकशास्त्र’
की टीका में
किया है। यह
नाटक ध्रुवदेवी और
चन्द्रगुप्त द्वितीय के ऐतिहासिक
वृत्त पर आधारित
है, किन्तु अभी
इसके कुछ अंश
ही प्राप्त हुए
हैं। ‘राघवानन्द नाटकम्’
की रचना राम-चरित्र को लेकर
की गई होगी,
किन्तु इसके भी
एक-दो स्फुट
छन्द ही प्राप्त
हुए हैं।
‘मुद्राराक्षस’
की रचना पूर्ववर्ती
संस्कृत-नाट्यपरम्परा से सर्वथा
भिन्न रूप में
हुई है। वैसे,विशाखदत्त भारतीय नाटयशास्त्र
से सुपरिचित थे
और इसी कारण
उन्हें ‘मुद्राराक्षस’ में ‘कार्य’
की एकता का
निर्वाह करने में
अद्भुत सफलता प्राप्त हुई
है, यद्यपि घटना-कम की
व्यापकता को देखते
हुए यह उपलब्धि
सन्दिग्ध हो सकती
थी। किन्तु पूर्ववर्ती
लेखकों द्वारा निर्धारित प्रतिमानों
का यथावत् अनुकरण
भी उन्हें अभीष्ट
नहीं था। इसीलिए
उन्होंने भावुकता, कल्पना आदि
के आश्रय द्वारा
कथानक को अतिरिक्त
जीवन-संघर्ष में
प्राप्त होने वाली
सफलता-असफलता का
यथार्थमूलक चित्रण किया है।
उन्होंने कथानक को शुद्ध
ऐतिहासिक पृष्ठभूमि प्रदान की
है, स्वच्छन्दतावादी तत्वों
पर उनका बल
नहीं रहा है।
आभिजात्यवादी दृष्टिकोण न केवल
कथा-संयोजन और
चरित्र-चत्रिण में दृष्टिगत
होता है, अपितु
उनकी सुस्पष्ट तथा
सशक्त पद-रचना
भी इसी प्रवृत्ति
की देन है।
इस सन्दर्भ में
यह भी उल्लेखनीय
है कि जिस
प्रकार मल्लिनाथ की व्याख्याओं
के अभाव में
कालिदास के कृतित्व
का अनुशीलन अपूर्ण
होगा, उसी प्रकार
‘मुद्राराक्षस’ पर ढुंढिराज
की टीका भी
प्रसिद्ध है।
‘मुद्राराक्षस’
को हिन्दी में
सर्वप्रथम अनुदित करने का
श्रेय भारतेन्दु हरिश्चन्द्र
को है। प्रस्तुत
संस्करण को खड्गविलास
प्रेस बाँकीपुर से
1925 ई० में प्रकाशित
आठवीं आवृत्ति के
आधार पर सम्पादित
किया गया है।
उक्त संस्करण को
‘क्षत्रिय-पत्रिका’ के सम्पादक
तथा भारतेन्दु जी
के मित्र महाराजकुमार
बाबू रामदीन सिंह
ने प्रकाशित किया
था, अतः इसकी
प्रामाणिकता असन्दिग्ध है। वर्तनी
की दृष्टि से
दो-चार परिवर्तन
करने के अतिरिक्त
मैंने प्रस्तुत पाठ
को अविकल, उक्त
मूल प्रति के
अनुरूप रखा है।
नाटक के स्वच्छ
मुद्रण के लिए
पात्रों के संवादों,
रंग-संकेतों आदि
को भी भारतेन्दुयुगीन
परिपाटी के अनुसार
मुद्रित न करके
भिन्न व्यवस्था दी
गई है, किन्तु
ऐसे स्थलों पर
मूल पाठ को
नहीं बदला गया
है। भारतेन्दु ने
मूल नाटक का
अनुवाद करते समय
नाटक के कुछ
स्थलों को स्पष्ट
करने के लिए
पाद-टिप्पणियाँ दी
थीं, जिन्हें मैंने
यथावत् उद्धत किया है।
विश्वास है कि
प्रस्तुत आकार-प्रकार
में ’मुद्राराक्षस’ का
यह संस्करण सुधी
जनों का ध्यान
आकृष्ट करेगा।
मुद्राराक्षसः
समीक्षा-
‘मुद्राराक्षस’
संस्कृत के प्रसिद्ध
नाटककार विशाखदत्त की रचना
है, जिसमें इतिहास
और राजनीति का
सुन्दर समन्वय प्रस्तुत किया
गया है। इसमें
नन्दवंश के नाश,
चन्द्रगुप्त के राज्यारोहण,
राक्षस के सक्रिय
विरोध, चाणक्य की राजनीति
विषयक सजगता और
अन्ततः राक्षस द्वारा चन्द्रगुप्त
के प्रभुत्व की
स्वीकृति का उल्लेख
हुआ है। इसमें
साहित्य और राजनीति
के तत्त्वों का
मणिकांचन योग मिलता
है, जिसका कारण
सम्भवतः यह है
कि विशाखदत्त का
जन्म राजकुल में
हुआ था। वे
सामन्त बटेश्वरदत्त के पौत्र
और महाराज पृथु
के पुत्र थे।
‘मुद्राराक्षस’ की कुछ
प्रतियों के अनुसार
वे महाराज भास्करदत्त
के पुत्र थे।
इस नाटक के
रचना-काल के
विषय में तीव्र
मतभेद हैं, अधिकांश
विद्धान इसे चौथी-पाँचवी शती की
रचना मानते हैं,
किन्तु कुछ ने
इसे सातवीं-आठवीं
शती की कृति
माना है। संस्कृत
की भाँति हिन्दी
में भी ‘मुद्राराक्षस’
के कथानक को
लोकप्रियता प्राप्त हुई है,
जिसका श्रेय भारतेन्दु
हरिश्चन्द्र को है।
भारतेन्दु हरिश्चंद्र ने ‘सत्य
हरिश्चन्द्रं’ (1875ई०), ‘श्री चन्द्रावली’
(1876), ‘भारत दुर्दशा’ (1876-1880 के मध्य),
‘नीलदेवी’ (1881) आदि मौलिक
नाटकों की रचना
के अतिरिक्त संस्कृत-नाटकों के अनुवाद
की ओर भी
ध्यान दिया था।
‘मुद्राराक्षस’ का अनुवाद
उन्होंने 1878 ई0 में
किया था। इसके
पूर्व वे संस्कृत-रचना ‘चौरपंचाशिका’ के
बंगला-संस्करण का
‘विद्यासुन्दर’(1868) शीर्षक से, कृष्ण
मिश्र के प्रबोधचन्द्रोदय’
के त़ृतीय अंक
का ‘पाखंड विडम्बन’
(1872) शीर्षक से, और
राजशेखर कृत प्राकृत-कृति ‘सट्टक’ का
‘कर्पूर-मंजरी’ (1875-76) शीर्षक से अनुवाद
कर चुके थे।
इन अनुवादों में
उन्होंने भावानुवाद की पद्धित
अपनाई है, फलतः
इन्हें नाटयरूपान्तर कहना अधिक
उपयुक्त होगा। नाटक के
प्रस्तावना, भरतवाक्य आदि स्थलों
को उन्होंने प्रायः
मौलिक रूप में
प्रस्तुत किया है।
इसी प्रकार शब्दानुवाद
की प्रवृत्ति का
आश्रम न लेकर
चरित्र-व्यंजना में पर्याप्त
स्वतन्त्र दृष्टिकोण रखा गया
है। यही कारण
है कि ‘मुद्राराक्षस’
में अनुवाद की
शुष्कता के स्थान
पर मौलिक विचारदृष्टि
और भाषा-प्रवाह
को प्रायः लक्षित
किया जा सकता
है। नाटकगत काव्यांश
में यह प्रवृत्ति
और भी स्पष्ट
रूप में लक्षित
होती है। प्रस्तुत
लेख में अनुवादक
की सफलता-असफलता
पर विचार न
करके भारतेन्दु कृत
अनुवाद के आधार
पर मुद्राराक्षस का
मूल्यांकन किया जाएगा
जिसमें विशाखदत्त के कृतित्व
की समीक्षा ही
विशेषतः अभीष्ट होगी।
कथानक-
‘मुद्राराक्षस’
की कथावस्तु प्रख्यात
है। इस नाटक
के नामकरण का
आधार यह घटना
है-अपनी मुद्रा
को अपने ही
विरूद्ध प्रयुक्त होते हुए
देखकर राक्षस का
स्तब्ध अथवा विवश
हो जाना। इसमें
चन्द्रगुप्त के राज्यारोहण
के उपरान्त चाणक्य
द्वारा राक्षस की राजनीतिक
चालों को विफल
कर देने की
कथा को सात
अंकों में सुचारू
रूप में व्यक्त
किया गया है।
नाटककार ने चाणक्य
औऱ राक्षस की
योजना-प्रतियोजनाओं को
पूर्ण राजनीतिक वैदग्ध्य
के साथ उपस्थापित
किया है। उन्होंने
नाटकगत घटनाकम के आयोजन
में स्वाभाविकता, जिज्ञासा
और रोचकता की
ओर उपयुक्त ध्यान
दिया है। तत्कालीन
राजनीतिज्ञों द्वारा राजतंत्र के
संचालन के लिए
किस प्रकार के
उपायों का आश्रय
लिया जाता था।
इसका नाटक में
रोचक विवरण मिलता
है। चाणक्य के
सहायकों ने रूचि-अरूचि अथवा स्वतन्त्र
इच्छा-शक्ति की
चिन्ता न करते
हुए अपने लिए
निर्दिष्ट कार्यों का जिस
तत्परता से निर्वाह
किया, वह कार्य
सम्बन्धी एकता का
उत्तम उदाहरण है।
घटनाओं की धारावाहिकता
इस नाटक का
प्रशंसनीय गुण है,
क्योंकि षड्यन्त्र-प्रतिषड्यंत्रों की
योजना में कहीं
भी व्याघात लक्षित
नहीं होता। यद्यपि
चाणक्य की कुटिल
चालों का वर्णन
होने से इसका
कथानक जटिल है,
किन्तु नाटककार ने इसे
पूर्वापर क्रम-समन्वित
रखने में अद्भुत
सफलता प्राप्त की
है। इसमें कार्यावस्थाओं,
अर्थ-प्रकृतियों सन्धियों
और वृत्तियों का
नाटयशास्त्रविहित प्रयोग हुआ है।
कार्यावस्थाए-
भारतीय आचार्यों ने नाटक
ने कथा-विकास
की पांच अवस्थाएँ
मानी हैं-प्रारम्भ,
प्रयत्न, प्राप्त्याशा, नियताप्ति, फलागम। नाटक
का आरम्भ रूचिर
और सुनियोजित होना
चाहिए, क्योंकि नाटक की
परवर्ती घटनाओं की सफलता
इसी पर निर्भर
करती है। ‘मुद्राराक्षस’
में निपुणक द्वारा
चाणक्य को राक्षस
की मुद्रा देने
तक की कथा
‘प्रारम्भ’ के अन्तर्गत
आएगी। ‘प्रयत्न’ अवस्था के
अन्तर्गत इन घटनाओं
का समावेश किया
जा सकता है-चाणक्य द्वारा राक्षस
और मलयकेतु में
विग्रह कराने की चेष्टा,
शकटदास को सूली
देने का मिथ्या
आयोजन, सिद्धार्थक द्वारा राक्षस
का बिश्वासपात्र बनकर
उसे धोखा देना
आदि। ’प्राप्त्याशा’ की
योजना के लिए
नाटककार ने चन्द्रगुप्त
और चाणक्य के
छदम विरोध, राक्षस
द्वारा कुसुमपुर पर आक्रमण
की योजना आदि
घटनाओं द्वारा राक्षस का
उत्कर्ष वर्णित किया है,
किन्तु साथ ही
कूटनीतिज्ञ चाणक्य की योजनाओं
का भी वर्णन
हुआ है। चाणक्य
द्वारा राक्षस और मलयकेतु
में विग्रह करा
देने और राक्षस
की योजनाओं को
विफल कर देने
की घटनाएँ ‘नियताप्ति’
के अन्तर्गत आती
है। छठे-सातवें
अंकों में ‘फलागम’
की सिद्धि के
लिए राक्षस के
आत्म- समर्पण की
पृष्ठभूमि प्रस्तुत करते हुए
उसके द्वारा चन्द्रगुप्त
के अमात्य-पद
की स्वीकृति का
उल्लेख हुआ है।
उक्त अवस्थाओं का
निरूपण नाटकार ने जितनी
और स्वच्छता से
किया है, वह
प्रशंसनीय है।
अर्थ-प्रकृतियाँ-
कथानक ने सम्यक,
विकास के लिए
भारतीय आचार्यों ने कार्यावस्थाओं
की भाँति पाँच
अर्थ-प्रकृतियाँ भी
निर्धारित की हैं-बीज, बिन्दु,
पताका, प्रकरी, कार्य। इनमें
से पताका’ के
अन्तर्गत मुख्य प्रासंगिक कथा
को प्रस्तुत किया
जाता है और
‘प्रकरी’ से अभिप्राय
गौण प्रासंगिक कथाओं
के समावेश से
है। किन्तु, कथानक
के सम्यक् विकास
के लिए प्रासंगिक
कथाओं और आधिकारिक
कथा का सन्तुलित
निर्वाह आवश्यक है। ‘मुद्राराक्षस’
में चाणक्य द्वारा
राक्षस को अपने
पक्ष में मिलाने
का निश्चय कथावस्तु
की ’बीज’ है.
जिसकी अभिव्यक्ति प्रथम
अंक में चाणक्य
की उक्ति में
हुई हैः ‘‘जब
तक राक्षस नहीं
पकड़ा जाता तब
तक नन्दों के
मारने से क्या
और चन्द्रगुप्त को
राज्य मिलने से
ही क्या ?.... इससे
उसके पकड़ने में
हम लोगों को
निरूद्यम रहना अच्छा
नहीं।’’ चाणक्य आदि का
मलयकेतु के आश्रम
में चले जाना
बीजन्यास’ अथवा बीज
का आरम्भ है।
बिन्दु’ के अन्तर्गत
इन घटनाओँ की
गणना की जा
सकती है-निपुणक
द्वारा चाणक्य को राक्षस
की मुद्रा देना,
शकटदास से पत्र
लिखवाना, चाणक्य द्वारा चन्दनदास
को बन्दी बनाने
की आज्ञा देना।
नाटक की फल-सिद्धि में सिद्धार्थक
और भागुरायण द्वारा
किए गए प्रयन्त
‘पताका’ के अन्तर्गत
गण्य हैं। ’प्रकरी’
का आयोजन ’मुद्राराक्षस’
के तृतीय अंक
के अन्त और
चतुर्थ अंक के
प्रारम्भ में किया
गया है-चाणक्य
और चन्द्रगुप्त में
मिथ्या कलह और
राक्षस तक इसकी
सूचना पहुंचना इसका
उदाहरण है। राक्षस
द्वारा चन्द्रगुप्त का मंत्रित्व
स्वीकार करके आत्मसमर्पण
कर देना ‘कार्य’
नाम्नी अर्थ-प्रकृति
हैः अवस्थाओं के
अन्तर्गत इसी को
फलागम की संज्ञा
दी जाती है।
fine
ReplyDeleteराम तुम्हारा चरित स्वयं ही महाकाव्य है।
ReplyDeleteकोई कवि हो जाये यह सहज संभाव्य हैं॥
good effort ! keep it active and updated
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